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अरविन्द के नेक इरादों से लोगों का भरोसा उनकी ही तमाम हरकतों की वजह से उठा है। सभी को भ्रष्ट बताना, केवल खुद को ईमानदार बताना, दिल्ली में सरकार बनाने और गिराने की नौटंकी, फोर्ड के चंदे पर चुप्पी, हर किसी पर केवल तथाकथित सबूतों के साथ आरोप लगाकर सुर्खियां बटोरना पर इन सबूतों के आधार पर एक मुकदमा तक न कायम करना, दिल्ली में खुद को मौका मिलने पर काम करने के बजाय बिजली जैसे मुद्दे पर लोगों को बहकाना और दूसरों पर ठीकरा फोड़कर अपनी असफलता छुपाना और फिर भाग जाना तमाम ऐसी नज़ीरें हैं। अन्ना हज़ारे और किरण बेदी जैसे सहयोगियों ने साथ छोड़ दिया, कुछ तो कारण होगा?? अन्ना और बेदी को लोग तब से जानते हैं जब ये अरविन्द कुछ नहीं थे। आम आदमी होने का दम भरने वाले सिसोदिया, बिड़ला, भारती जैसे सहयोगियों के अति-विशिष्ट तौर-तरीकों, शाही, अराजक, विवादस्पद कृत्यों पर नियंत्रण के बजाय उन्हें शह देना, मुख्यमंत्री होते हुए भी धरने की नौटंकी से अराजकता उत्पन्न करना क्या था? माफ़ कीजियेगा, ऐसे आनन-फानन, अपरिपक्व और अराजक तौर-तरीकों से इतना बड़ा देश नहीं चल पायेगा, नीयत आपकी कुछ भी हो। नीयत के साथ साथ जिस क्षमता, स्थिरता, परिपक्वता की जरुरत देश चलाने के लिए है, वो इनमे कहीं से नहीं दिखी, यह आम चुनाव शायद इसे पूरी तरह साबित कर दें। असफलता सामने देखकर खुद को सांत्वना देने के लिए “हम भले वो न कर पाये, जो चाहते थे, पर हमसे सूरत बदलने की कोशिश तो की!”, यह अंदाज़ अपनाना आपका चयन नहीं, एकमात्र बचा रास्ता या योन कहें कि विवशता बन गया है। अरविन्द ने देश का भरोसा जगाने का जितना बड़ा सामाजिक पौरुष इतने कम समय दिखाकर जो उम्मीदें जगाई थी, वो अरविन्द के राजनैतिक शीघ्रपतन से काफी हद तक बिखर गई हैं।
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